Ghalib Ke Sher

रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज,
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गईं !!

 

हम हैं मुश्ताक़ और वो बे-ज़ार
या इलाही ये माजरा क्या है !!
जान तुम पर निसार करता हूँ,
मैं नहीं जानता दुआ क्या है !!


पड़िए गर बीमार तो कोई न हो तीमारदार
और अगर मर जाइए तो नौहा-ख़्वाँ कोई न हो

 

हसद से दिल अगर अफ़्सुर्दा है गर्म-ए-तमाशा हो
कि चश्म-ए-तंग शायद कसरत-ए-नज़्ज़ारा से वा हो

 

हम तो जाने कब से हैं आवारा-ए-ज़ुल्मत मगर,
तुम ठहर जाओ तो पल भर में गुज़र जाएगी रात !!

है उफ़ुक़ से एक संग-ए-आफ़्ताब आने की देर,
टूट कर मानिंद-ए-आईना बिखर जाएगी रात !!

दैर नहीं हरम नहीं दर नहीं आस्ताँ नहीं
बैठे हैं रहगुज़र पे हम ग़ैर हमें उठाए क्यूँ

 

हम हैं मुश्ताक़ और वो बे-ज़ार
या इलाही ये माजरा क्या है

 

दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है

 

हो उसका ज़िक्र तो बारिश सी दिल में होती है
वो याद आये तो आती है दफ’तन ख़ुशबू

 

इक शौक़ बड़ाई का अगर हद से गुज़र जाए
फिर ‘मैं’ के सिवा कुछ भी दिखाई नहीं देता

 

इक क़ैद है आज़ादी-ए-अफ़्कार भी गोया,
इक दाम जो उड़ने से रिहाई नहीं देता

Ghalib Shayari
Ghalib Hindi Shayari

इक आह-ए-ख़ता गिर्या-ब-लब सुब्ह-ए-अज़ल से,
इक दर है जो तौबा को रसाई नहीं देता

 

इक क़ुर्ब जो क़ुर्बत को रसाई नहीं देता,
इक फ़ासला अहसास-ए-जुदाई नहीं देता

 

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5 thoughts on “Ghalib Ke Sher”

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  4. रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ‘ग़ालिब’
    कहते हैं अगले ज़माने में कोई ‘मीर’ भी था

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    काबा किस मुँह से जाओगे ‘ग़ालिब’
    शर्म तुम को मगर नहीं आती

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    दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ
    मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ

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    कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
    ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता

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