बहुत ‘संभाल’ के रखा था मैंने “खुद” को कहीं…
और अब ‘मसला’ ये है कि कहीं “मिल” नहीं रहा हूँ!
ख़ुद को “खर्च” कर दिया तेरे ‘खाली इश्क’ में …
तू बता कि ‘ज़िन्दगी’ को अब क्या “जवाब” दूँ!
“मुश्किलें” ‘दिल’ के इरादे “आजमाती” है…
“स्वप्न” के परदे ‘निगाहों’ से हटाती हैं…
“हौसला” मत “हार” ‘गिर’ कर ओ मुसाफिर…
“ठोकरें इन्सान” को ‘चलना’ सिखाती हैं!
चेहरे पर ‘हंसी’ छा जाती है …आँखों में ‘सुरूर’ आ जाता है ….
जब तुम मुझे ‘अपना’ कहते हो …अपने पर ‘गुरुर’ आ जाता है!
ख़िलाफ़ हो गये हैं ‘बागबान’ के “फूल” सारे …
जबसे “समझने” लगे हैं वो ‘आँखों के इशारे’!
मैंने इस ‘बहाने’ रखी नहीं “दिल” में उम्मीदें …
कि कौन ‘जंगल’ में उगे पेडों को “पानी” देगा!
कभी तुम मुझे “अपना” तो कभी “गैर” कहते गये …
देखो “मेरी नादानी”, हम सिर्फ तुम्हे “अपना” कहते गये!
काश वो भी आकर “हमसे” कह दे ‘मैं भी तन्हाँ’ हूँ…
तेरे बिन, तेरी तरह, तेरी ‘कसम’, तेरे लिए!
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