ख़ुद “तराशना” ‘पत्थर’ और “ख़ुदा” बना लेना…
“आदमी” को आता है “क्या से क्या” बना लेना!
गिरते हुऐ “अश्क” की… “कीमत”… “न” पूछना …
“इश्क़” के हर बूंद में…”लाखों”… “सवाल” होते हैं!
तेरी ‘आवाज़’ तेरे “रूप” की ‘पहचान’ है…
तेरे ‘दिल की धड़कन’ में “दिल की जान” है…
ना सुनूं जिस दिन तेरी बातें…
लगता है उस रोज़ ये ‘जिस्म’ “बेजान” है!
तरसती “जिंदगी” के तरसते कुछ ‘अफ़साने’ हैं…
“दर्द” मिला इतना की अब हम तो “दर्द” के भी ‘दीवाने’ हैं!
मुझे ‘मालूम’ था कि…वो ‘रास्ते’ कभी ‘मेरी मंजिल’ तक नहीं जाते थे…
फिर भी मैं ‘चलता’ रहा क्योंकि…उस ‘राह’ में कुछ “अपनों के घर” भी आते थे!
‘दुआओं’ का ‘काफ़िला’ चलता है मेरे साथ…
‘मुक़द्दर’से कह दो ‘अकेला’ नहीं हूँ मैं!
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