एक “बचपन का जमाना” था… जिस में “खुशियों का खजाना” था…
चाहत “चाँद” को पाने की थी… पर दिल “तितली” का दीवाना था।
थाम लूँ..कि जाने दूँ…? वो परछाईयाँ इज़हार की…
देख लूँ…कि जाने दूँ…? ख़्वाब तेरी चाह की…
लिख दूँ…कि रहने दूँ…? नज़्म तेरे नाम की…
जीत लूँ…कि हार जाऊँ…? ये बाज़ी इंतज़ार की…
सुलगती रेत पर पानी की…अब तलाश नहीं…
मगर ये कब कहा हमने कि…हमें प्यास नहीं!
आज मैंने “तलाश” किया उसको अपने आप में…
वह मुझे “हर जगह” मिला इक मेरी “तक़दीर” के सिवा!
चुप थे तो चल रही थी… जिंदगी लाज़वाब…
ख़ामोशियाँ बोलने लगीं… तो बवाल हो गया!
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